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गीता प्रेस, गोरखपुर >> श्रीभीष्मपितामह

श्रीभीष्मपितामह

स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1140
आईएसबीएन :00000

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श्रीभीष्मपितामह का चरित्र चित्रण.....

Shri Bhisham Pitamah a hindi book by Swami Akhandanand Saraswati - श्रीभीष्मपितामह स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

पितामह भीष्म महाभारत को पात्रों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे आदर्श पितृभक्त, आदर्श सत्य प्रतिज्ञा, आदर्श वीर, धर्म महान् ज्ञाता, परमात्मा के तत्वों को जानने वाले तथा महान् भगवद्भक्त थे। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके अगाध ज्ञानकी प्रसंशा करते हुए कहा था कि ‘भीष्मके इस लोकसे चले जानेपर सारे ज्ञान लुप्त हो जायँगे। संसार में जो संदेहग्रस्त विषय हैं, उनका समाधान करनेवाला भीष्म के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है।’ पितामह भीष्मका चरित्र सभी दृष्टियों से परम पवित्र और आदर्श है। भीष्मके सदृश महापुरुष भीष्म ही हैं।  भीष्म के प्रतिज्ञाबद्ध होनेके कारण उनके संतान नहीं हुई तथापि वे समस्त जगत के पितामह हैं। त्रैवर्णिक हिन्दूमात्र आज भी पितरों का तर्पण करते समय उन्हें श्रद्धापूर्वक जलाञ्जलि अर्पित करते हैं। ऐस आदर्श  महापुरुष भीष्मपितामह का यह संक्षिप्त चरित्र लिखकर  स्वामीजी श्रीअखण्डनन्दजी महाराजने भारतीय जनता का बड़ा उपकार किया है। यह चरित्र बहुत दिनों पहले का लिखा रखा था- भगवत्कृपासे अब इसके प्रकाशन का सुअवसर प्राप्त हुआ है। यह बालक-वृद्ध नर-नारी सभी के कामका है और सभी के जीवन को पवित्र करनेवाला है। आशा है हमारे पाठक इससे लाभ उठावेंगे।

हनुमान प्रसाद पोद्दार


।।श्रीहरिः।।

श्रीभीष्मपितामह


वंश-परिचय और जन्म


यह सृष्टि भगवान् का लीला-विलास है। भगवान् की  ही भाँति इसके विस्तार और भेद-उपभेदोंका जानना एवं अनन्त आकाश में एक परमाणु से अधिक सत्ता नहीं रखता। इस ब्रह्माण्ड में भी स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेदों से अधिक अनेकों लोक हैं और वे सब पारस्परिक सन्बन्ध से बँधे हुए हैं। हमलोग जिस स्थूल पृथ्वी पर रहते हैं, उसकी रक्षा-दीक्षा केवल इस पृथ्वी के लोगों द्वारा ही नहीं होती; बल्कि सूक्ष्म और कारण जगत् के देवता-उपदेवता एवं संत-महापुरुष इसकी रक्षा-दीक्षा में लगे रहते हैं। समय-समयपर ब्रह्मलोक से कारक पुरुष आते हैं। और वे पृथ्वीपर धर्म, ज्ञान, सुख एवं शान्तिके साम्राज्य का विस्तार करते हैं।

ऐसे कारक पुरुष ब्रह्मा की सभा के सदस्य होते हैं। जो अपनी उपासनाके बल पर ब्रह्मालोकमें गये होते हैं, वे ब्रह्माके साथ रहकर उनके काममें हाथ बँटाते हैं और उनकी आयु पूर्ण होनेपर उनके साथ ही मुक्त हो जाते हैं। कुछ लोग वहाँ से लौट भी आते हैं तो संसार के कल्याणकारी कामोंमें ही लगते हैं और एक-न-एक दिन सम्पूर्ण वासनाओं के क्षीण होनेपर पुनः मुक्त हो जाते हैं। ब्रह्मलोकमें गये हुए पुरुषों में श्रीमहाभिषक्जीका नाम बहुत ही प्रसिद्ध है। ये परम पवित्र इक्ष्वाकुवंश के एक राजा थे और अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप इन्होंने इतनी उत्तम गति प्राप्त की है।

एक दिन ब्रह्माकी सभा लगी हुई थी। ऋषि-महर्षि, साधु-संत, देवता-उपदेवता एवं उसके सभी सदस्य अपने-अपने स्थानपर बैठे हुए थे। प्रश्न यह था कि जगतमें अधिकाधिक शान्ति और सुखका विस्तार किस प्रकार किया जाय ? यही बात सबके मनमें आ रही थी कि यहाँ से कुछ अधिकारी पुरुष भेजे जायँ और वे पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर सबका हित करें। उसी समय गंगा नदी की अधिष्ठात्री देवी श्रीगंगाजी वहां पधारीं। सबने उनका स्वागत किया। संयोगकी बात थी, हवाके एक हलके झोंके से उनकी साड़ी का एक पल्ला उड़ गया, तुरंत सब लोगों की दृष्टि, नीचे हो गयी। भला, ब्रह्मालोक में मर्यादा का पालन कौन नहीं करता !

विधाता का ऐसा ही विधान था, भगवान की यही लीला थी। महात्मा महाभिषककी आँखें नीची नहीं हुईं, वे बिना झिझक और हिचकिचाहट के गंगाजी की ओर देखते रहे। भगवान, जानें उनके मनमें क्या बात थी; परंतु ऊपर से तो ब्रह्मालोकके नियम का उल्लंघन हुआ ही था। इसलिये ब्रह्माने भरी सभा में महाभिषक्से कहा कि ‘भाई ! तुमने यहाँ के नियम का उल्लंघन किया है, इसलिये अब कुछ दिनों के लिये तुम  मत्युलोक में जाओ। वहाँ का काम सम्भालना ही है, इस मर्यादा के उल्लंघन का दण्ड भी तुम्हें मिल जायगा। एक बात और है- श्रीगंगाजी तुम्हें सुन्दर मालूम हुई हैं, मधुर मालूम हुई हैं और आकर्षक मालूम हुई हैं। उनकी ओर खिंच जाने के कारण ही तुम्हारी आँखें उनकी ओर देखती रही हैं, इसलिए मर्त्यलोक में जाकर तुम अनुभव करोगे कि जिस गंगा की ओर मैं खिंच गया था, उनका हृदय कितना निष्ठुर है, तुम देखोगे कि वे तुम्हारा कितना अप्रिय करती हैं’ महाभिषकने ब्रह्मा की आज्ञा शिरोधार्य की।

उन दिनों पृथ्वी पर महाप्रतापी महाराज प्रतीपका साम्राज्य था। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके प्रजापालनकी क्षमता प्राप्तकर ली थी। और उनसे पवित्र प्रतिष्ठा एवं वांछनीय और कोई वंश नहीं था। श्रीमहाभिषकने उन्हीं का पुत्र होना अच्छा समझा और वे ब्रह्माकी अनुमतिसे उन्हीं के यहाँ आकर पुत्ररूप से अवतीर्ण हुए। धीरे-धीरे शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति वे बढ़ने लगे और उनकी तीक्ष्ण बुद्धि, लोकोपकारप्रियता, अपने कर्तव्यमें तत्परता आदि देखकर महाराजा प्रतीपने उसकी शिक्षा-दीक्षा का सुन्दर प्रबन्ध कर दिया। थोड़े ही दिनों में वे सारी विद्याओं एवं विशेष करके धनुर्विद्या में निपुण हो गये। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जिस वृद्ध या रोगी पुरुष के सिरपर हाथ रख देते; वह भला-चंगा, हृष्ट-पुष्ट हो जाता था। इसी से संसार में वे शान्तनु नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रतीक के बुढ़ापे में शान्तनु का  जन्म हुआ था, इसलिये वे इसकी प्रतीक्षामें थे कि  कब मेरा पुत्र योग्य हो जाय और मैं उसके जिम्मे प्रजापालन का कार्य देकर जंगल में चला जाऊँ।

एक दिन प्रतीप ने शान्तनु से कहा- ‘बेटा !  अब तुम सब प्रकार से योग्य हो गये हो। मैं बुड्ढा हो गया हूँ। अब मैं वानप्रस्थ-आश्रम में रहकर तपस्या करूँगा, तुम राज-काज देखो। एक बात तुम्हें मैं और बताता हूँ, एक स्वर्गीय सुन्दरी तुमसे विवाह करना चाहती है। वह कभी-न-कभी तुम्हें एकान्त में मिलेगी। तुम उससे विवाह कर लेना और उसकी इच्छा पूर्ण करना। बेटा ! यही मेरी अन्तिम आज्ञा है !’ इतना कहकर प्रतीपने अपनी सम्पूर्ण प्रजा को एकत्र किया और सबकी सम्मति लेकर शान्तनु का राज्याभिषेक कर दिया और वे स्वयं तपस्या करनेके लिये जंगल में चले गये।

जब श्रीगंगाजी ब्रह्मलोकसे लौटने लगीं, तब उन्हें बार-बार ब्रह्मलोककी घटनाएँ याद आने लगीं। एकाएक हवाके झोंके से वस्त्र का खिंच जाना, महाभिषक का देखते रहना, ब्रह्माका शाप दे देना इत्यादि बातें उनके दिमाग में बार-बार चक्कर काटने लगीं। वे सोचने लगीं कि मेरे ही कारण महाभिषक को शाप हुआ है और उन्हें ब्रह्मलोक छोड़कर मर्त्यलोक जाना पड़ा है। चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, मैं इसमें कारण अवश्य हुई हूँ। तब मुझे अवश्य कुछ-न-कुछ करना चाहिये। चाहे जैसे हो, मैं महाभिषककी सेवा अवश्य करूँगी। गंगाजी यह सोच ही रही थीं कि उनकी आँखें दूसरी ओर चली गयीं। उन्होंने देखा कि आठों वसु स्वर्ग के नीचे उतर रहे हैं, उनके मन में बड़ा कुतूहल हुआ। उन्होंने वसुओंसे पूछा- ‘वसुओ ! स्वर्ग में कुशल तो है न ? तुम सब-के-सब एक ही साथ पृथ्वी पर क्यों जा रहे हो ?’

 वसुओंने कहा-‘माता ! हम सबको शाप मिला है कि हम मर्त्यलोक में जाकर पैदा हों। हमसे अपराध तो कुछ थोड़ा-सा अवश्य हो गया था, परंतु इतना कड़ा दण्ड देनेका अपराध नहीं हुआ था। बात यह थी कि महार्षि वसिष्ठ गुप्तरूप से संध्या-वंदन कर रहे थे, हमलोगों ने उन्हें पहचाना नहीं, बिना प्रणाम किये ही आगे बढ़ गये। हमलोगों ने जान-बूझकर मर्यादा का उल्लंघन किया है, यह सोचकर उन्होंने हमें मनुष्य-योनिमें उत्पन्न होनेका शाप दे दिया। वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष हैं, उनकी वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती; परंतु माता ! हमारी इच्छा किसी मनुष्य स्त्री के गर्भ से पैदा होने की नहीं है। अब तुम्हारी शरण में हैं और तुमसे यह प्रार्थना करते हैं कि तुम हमें अपने गर्भ में धारण करो। हमें साक्षात् अपना शिशु बनाओ।’

गंगाके मन में यह बात बैठ गयी। उन्होंने कहा- ‘अच्छा तुमलोग यह बतलाओ कि अपना पिता किसे बनाना चाहते हो ?’ वसुओंने कहा- ‘महाप्रतापी के पुत्र महाराज शान्तनु के द्वारा ही हम जन्म ग्रहण करना चाहते हैं।’ गंगा ने कहा- ‘ठीक है, तुम्हारे मतसे मेरा मत मिलता है। मैं भी महाराज शान्तनु को प्रसन्न करना चाहती हूँ, इसमें एक साथ ही दो काम हो जायँगे। मैं उनका प्रिय कर सकूँगी और तुम्हारी प्रार्थना भी पूरी हो जायगी।’ वसुओने कहा- ‘माता ! एक बात और करनी हम मनुष्य-योनिमें बहुत दिनों तक नहीं रहना चाहते, इसलिये पैदा होते ही तुम हमलोगों को अपने जल में डाल देना, इससे ऋषि का शाप भी पूरा जायगा और शीघ्र ही हमारा उद्धार भी हो जायगा।’


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